Friday, December 31, 2010

अनाथ

खुश हूँ कि बसंत -दर-बसंत
ओझल हुआ इन आँखों से
सड़क जिंदगी बनी
आसमां बना छत
लिपटा रहा तन,वक्त के चादर से
परिस्थिति क्या रही होगी ?
जब उठा होगा,हाथ मासूम के सर से
न कोई नाम,न कोई मजहब
बस जुड़ा था,एक शब्द "अनाथ"
मासूम के दमन से
कभी -कभी संवेदना फूटती ,इस जग से
पर अगले ही पल,रोष परिलक्षित होता
इन्ही लोगो के मन से
क्यों नहीं जोड़ा खुदा ,इस मासूम का
नाता किसी घर से
समय के पालने में खेलकर बड़ा हुआ
तो सोचता हूँ
क्या होता है,नया साल और जन्मदिन
क्यों मानते हैं,लोग इतनी ख़ुशी
ख्याल आता है खुद के बारे में
तो मन मिसोस कर कह देता है
खुदा ने ख़ुशी कि डोर काट दी ,
जनम ही से


---आर.विवेक

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