Thursday, July 1, 2010

शिछा की सजी दुकान

क्या चाहा था
क्या पाया तुझसे
आज का युवा पढ़ लिख के
bhee दर -दर भटके
प्रोफेशनल डिग्री हाथ में रख के
घर की साख कर्ज में डूबे
सवाभीमान आड़े हाथ आये
कोई काम न कर सके ,गिर कर ke
sichha vid ,fir bhee sapne bache
अपनी झोली भर-भर के
क्या चाहा ,क्या पाया तुझसे
शिछा के दीपक से ,चाहा
दूर करू अंधियारा मन से
त्याग समरपढ़ सब कुछ किया
दूर रहा जीवन भर घर से
अशिछित की नज़रो में हैं
ये कागज
पढ़े लिखे कहते हैं
fएल भरी पड़ी हैं , डिग्री से
ऐसी शिछा का क्या ,मतलब
जीवन यापन का साधन
न मिल पाए जिससे
क्या चाहा ,क्या पाया तुझसे
शिछा ज्ञान दिया
तर्क करने की छमता दिया
दिया भले बुरे की पहचान
पर , गिरा दिया गुर्न्वता अपनी
आधुनिकता के स्याह समंदर में
डेढ़ हाथ की डिग्री लटकी
खुटी के समान्तर में
मकखी उन पर सैर करती
दीमक की उपस्तिथ में
चूहा ललयिएत रहता
डिग्री में छुपे ,ज्ञान को पाने में
क्या चाहा ,क्या पाया तुझसे
आज का युवा पढ़ लिख के
likhne वाला -आर.वीवेक
-मेल-विवेक२१७४@जीमेल.com