Sunday, February 14, 2010

कोरी कल्पना

ज़न्नत से जमी पर उतरते
एक अफसरा देखा है
जुल्फ घने बादल है, उसके
तो घटाओ को जुल्फों में
सिमटते देखा है
चंचलता मांगे,इजाजत उनसे
की समंदर में,लहरों को उठते देखा है
मदमस्त चालो की है, वो मल्लिका
तो दरिया को हर मोड़ पर
बलखाते हुआ देखा
लव हैं की गुलाबी रंग समेटे हुआ
हर सुबह गुलाब को खिलते देखा है
ज़न्नत से जमी पर उतरते
एक अफसरा देखा है
लिबास है, की सप्तरंगी रंग समेटे हुआ
हर सुबह, सूरज के किरने पर्वत पर पड़ते देखा है
फूलो से भी नाजुक है, तन उनके
हवाओ से ये सन्देश भेजा है
बच-बचकर कितना भी निकले
इन निगाहों से.
झुके नजरो से, मैंने हर बार उनको देखा है
जब -जब सर से उडे चुनर उनकी
ऐसा लगे, जैसे बदलो को अटखेलिया करते हुआ देखा है
है नको पे नाथ,और कजरारे नयन,
हर रात चाँद तारो, को चमकते हुआ देखा है
लिखने वाला -आर. विवेक
इ-मेल-विवेक2174 @जीमेल.कॉम

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