Monday, March 7, 2011

विरह की अगिन


सुबह कह रही है ,शाम से
मेरे जाने के बाद
आ जाना आराम से
दिनभर सूरज जलता है
चाँद की याद में
जब मिलने जाता ,सूरज चाँद से
चाँद बेवफा कहकर
निकल आती है रात में
सुबह कह रही है शाम से
सूरज सुन रहा ,होकर हैरान से
क्या गुस्ताखियाँ हुईं ?
हमने फासले बढा लिए
अपने आप से
फिर भी रह रहे हैं ,एक आकाश में
सुबह कह रही है ,शाम से
(सूरज कह रहा है ) इतेफाकन
कहीं मुलाकात हुईं ,चाँद से
तो कहेगे ,शान से निकलती हो
तारो के बीच ,रात में
कभी वक्त निकाल कर
अकेले में मिल लिया करो
अपने पुराने मेहमान से
सुबह कह रही है ,शाम से
-आर.विवेक

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