Saturday, September 4, 2010

तेरा शर्माना

ढलता हुआ सूरज
शर्माती नारी सा क्यों हैं
घुघट में लिपटने को
इतना बेताब सा क्यों हैं
रौशन है जहाँ तुझसे
तू बे-नाम सा क्यों हैं
उमड़ते ज़ज्बात
समुंदरी ज्वार सा क्यों हैं
ठहर कुछ पल
करू दीदार तेरा
सारा जहाँ हैं तेरा
मेरा यहाँ क्या हैं
ढलता हुआ सूरज
शर्माती नारी सा क्यों हैं
लिखने वाला -आर.विवेक
_मेल-विवेक२१७४@जीमेल.com

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