तेरी क्या बिसात है ?
मेरी क्या पहचान ?
बगैर तेरे वजूद के
मैं हूँ ,शोकेस में लगे
पुतले समान
मेरा मन कोरा है
कोरा है मेरा बदन
तुम गोदते हो ,गोदना
मेरे जिस्म पर
और बनाते हो, कई निशान
आह निकलती है
हर अक्षरों पर
पर तुम चलने में
रहते हो मगन
सोचते होंगे ,की मैं निर्जीव हूँ
और हूँ ,बे-प्राण
पर न भूलना हमने बढ़ाये हैं
कितनो के ज्ञान
कोई कहता है ,मुझे सरस्वती
तो किसी की नजरो में
मैं हूँ ,लक्ष्मी के समान
पर हम दोनों का
एक -दूसरे के बगैर
न होगा ,कंही गुजरा
चाहे दें ,दें
जिंदगी के कितने भी इम्तिहान
हकीकत ये है
की ,हम दोनों बदल लें
कितने रूप भी
पर तुमने एक लेखनी के रूप में
मैंने एक पन्ने के रूप में
बनायीं हैं अपनी पहिचान
--आर.विवेक